#क्या धर्म वास्तव में गरीबों और मानसिक रूप से विकलांग लोगों का प्रतिनिधित्व करता है।
(बलवंत सिंह परगाई साम्यवादी मेम्बर ऑफ़ cpiml उत्तराखंड)
#मार्क्स के अनुसार सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक न्याय किसे कहते है? सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता क्यों? और सामाजिक परिवर्तन कैसे संभव है?
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#क्या गरीबो व मानसिक रूप से विकलांग लोगो का है धर्म?
@#मानसिक विकलांगता के कारण मनुष्य जाति (पुरोहित, ब्रह्मण), धर्म, पत्थर की मूर्ति, फोटो को पूजना शुरू करते है। जब की आप को अपने हक अधिकारों के लिए काम करना चाहिए। धर्म आपको कभी भी इंसानियत नहीं सिखाता है। यह धर्म आपको डुबो देगा! डुबो देगा! डुबो देगा!!!
#जाती भेद-भाव मंदिरों में समानता की खोज.
मंदिरों में जातिगत भेदभाव एक जटिल मुद्दा है, जिसका समाधान खोजने के लिए समानता और सामाजिक न्याय के मूल्यों को बढ़ावा देना आवश्यक है। भारतीय संविधान समानता का अधिकार प्रदान करता है, और मंदिरों में भी सभी के लिए समान पहुंच सुनिश्चित की जानी चाहिए
संवैधानिक प्रावधान:
भारतीय संविधान अनुच्छेद 14, 15, और 17 में समानता और भेदभाव के निषेध का प्रावधान करता है।
सामाजिक आंदोलन:
कई सामाजिक और धार्मिक आंदोलनों ने मंदिरों में जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई है और समानता की मांग की है।
कानूनी उपाय:
सरकार ने जातिगत भेदभाव को रोकने के लिए कई कानून बनाए हैं, लेकिन उनका प्रभावी कार्यान्वयन एक चुनौती है।
जागरूकता अभियान:
शिक्षा और जागरूकता अभियान के माध्यम से, लोगों को समानता और न्याय के महत्व को समझाया जा सकता है।
मंदिरों में सुधार:
मंदिरों में भी समानता स्थापित करने के लिए, सभी के लिए समान पहुंच सुनिश्चित की जानी चाहिए और जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए।
मंदिरों में समानता की खोज के लिए आवश्यक है: #संविधान और कानून का सम्मान: #संविधान और कानूनों में समानता के प्रावधानों का पालन करना।
@सामाजिक न्याय की स्थापना:
@जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए सामाजिक न्याय की स्थापना करना।
#शिक्षा और जागरूकता:
शिक्षा और जागरूकता के माध्यम से, लोगों को समानता और न्याय के महत्व को समझाना।
#सामुदायिक भागीदारी:
मंदिरों में समानता स्थापित करने के लिए, समुदाय के सभी सदस्यों को साथ मिलकर काम करना होगा। मंदिरों में समानता की खोज एक सतत प्रक्रिया है, और इसके लिए सभी को मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है।
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उनका तर्क है कि धर्म अक्सर सामाजिक असमानता और अन्याय को कायम रखता है। उनका कहना है कि धर्म गरीबों और विकलांग लोगों को निष्क्रिय रहने और अपनी परिस्थितियों को स्वीकार करने के लिए सिखा सकता है, बजाय इसके कि वे अपने अधिकारों के लिए लड़ें और एक बेहतर जीवन की तलाश करें।
कार्ल मार्क्स, 19वीं सदी के महान दार्शनिक, अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री, ने मानवता को धर्म से ऊपर रखने का आह्वान किया था। मार्क्स के अनुसार, धर्म अक्सर एक सामाजिक संरचना के रूप में कार्य करता है जो मौजूदा शक्ति संरचनाओं को बनाए रखने और मजबूत करने में मदद करता है। उन्होंने तर्क दिया कि धर्म लोगों को उनकी वास्तविक समस्याओं से विचलित करता है और उन्हें झूठी आशा प्रदान करता है। मार्क्स का मानना था कि सच्ची मुक्ति केवल धर्म को त्यागने और मानवीय जरूरतों और इच्छाओं पर ध्यान केंद्रित करने से ही प्राप्त की जा सकती है।
*धर्म: अफीम या मुक्ति का मार्ग?
मार्क्स ने धर्म को “जनता के लिए अफीम” के रूप में वर्णित किया। इसका तात्पर्य यह था कि धर्म लोगों को वर्तमान दुखों और अन्याय को स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित करता है, क्योंकि उन्हें स्वर्ग में बेहतर जीवन का वादा किया जाता है।
मार्क्सवादी विचारधारा धर्म को “जनता के लिए अफीम” के रूप में देखती है। मार्क्सवादियों का मानना है कि धर्म शासक वर्ग द्वारा गरीबों और शोषितों को नियंत्रित करने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक उपकरण है। धर्म गरीबों को यह विश्वास दिलाता है कि उनकी पीड़ा भगवान की इच्छा है और उन्हें अपनी परिस्थितियों को स्वीकार करना चाहिए
मार्क्स के अनुसार, धर्म आवश्यक रूप से मानवता नहीं सिखाता है। उनका तर्क था कि धार्मिक शिक्षाएं अक्सर विभाजित करने वाली और भेदभावपूर्ण हो सकती हैं। उन्होंने विभिन्न धर्मों के बीच ऐतिहासिक संघर्षों और धार्मिक उत्पीड़न के उदाहरणों का उल्लेख किया। मार्क्स का मानना था कि सच्ची मानवता सभी मनुष्यों के लिए करुणा, सहानुभूति और सम्मान पर आधारित होनी चाहिए, चाहे उनकी धार्मिक मान्यताएं कुछ भी हों।
मार्क्स ने सवाल उठाया कि क्या धर्म वास्तव में गरीबों और मानसिक रूप से विकलांग लोगों की सेवा करता है। उन्होंने तर्क दिया कि धर्म अक्सर इन समूहों को हाशिए पर रखता है और उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के बजाय उन्हें भाग्यवादी और निष्क्रिय बनाता है। मार्क्स का मानना था कि इन समूहों की सच्ची मुक्ति के लिए सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को दूर करना और सभी के लिए समान अवसर प्रदान करना आवश्यक है
धर्म का उपयोग सामाजिक असमानता और अन्याय को कायम रखने के लिए किया जा सकता है। धर्म का उपयोग हिंसा और घृणा को भड़काने के लिए किया जा सकता है.
मार्क्स के मानवतावादी संदेश का आज भी गहरा महत्व है। दुनिया भर में, धार्मिक कट्टरवाद और असहिष्णुता बढ़ रही है। मार्क्स के विचार हमें याद दिलाते हैं कि हमें हमेशा मानवता को धर्म से ऊपर रखना चाहिए और सभी मनुष्यों के अधिकारों और गरिमा की रक्षा करनी चाहिए।
गरीबों के प्रति धर्म का दृष्टिकोण
*मार्क्स ने गरीबों के प्रति धर्म के दृष्टिकोण पर कड़ी आलोचना की। उन्होंने तर्क दिया कि धर्म अक्सर गरीबी को दैवीय इच्छा या पिछले जीवन के कर्मों का परिणाम मानता है। यह गरीबों को अपनी स्थिति को स्वीकार करने और सामाजिक परिवर्तन के लिए लड़ने के बजाय, इसे सहने के लिए प्रोत्साहित करता है। मार्क्स का मानना था कि गरीबी सामाजिक अन्याय का परिणाम है और इसे दूर करने के लिए क्रांतिकारी परिवर्तन की आवश्यकता है।
मानसिक रूप से विकलांग लोगों के प्रति धर्म का दृष्टिकोण
*मार्क्स ने मानसिक रूप से विकलांग लोगों के प्रति धर्म के दृष्टिकोण पर भी सवाल उठाया। उन्होंने तर्क दिया कि धर्म अक्सर मानसिक बीमारी को दैवीय दंड या राक्षसी कब्जे के रूप में देखता है। यह मानसिक रूप से विकलांग लोगों को कलंकित करता है और उन्हें उचित देखभाल और सहायता से वंचित करता है। मार्क्स का मानना था कि मानसिक बीमारी एक चिकित्सा स्थिति है और इसे वैज्ञानिक तरीकों से संबोधित किया जाना चाहिए।
*मानवतावाद: एक विकल्प?
*मार्क्स ने धर्म के विकल्प के रूप में मानवतावाद का प्रस्ताव रखा। मानवतावाद एक ऐसा दर्शन है जो मानव तर्क, नैतिकता और न्याय पर जोर देता है। मानवतावादी धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को बढ़ावा देते हैं और सभी मनुष्यों के लिए बेहतर दुनिया बनाने के लिए काम करते हैं।
धर्म अक्सर सामाजिक असमानता और अन्याय को कायम रखता है। उनका कहना है कि धर्म गरीबों और विकलांग लोगों को निष्क्रिय रहने और अपनी परिस्थितियों को स्वीकार करने के लिए सिखा सकता है, बजाय इसके कि वे अपने अधिकारों के लिए लड़ें और एक बेहतर जीवन की तलाश करें।
मार्क्सवादियों का मानना है कि धर्म शासक वर्ग द्वारा गरीबों और शोषितों को नियंत्रित करने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक उपकरण है। धर्म गरीबों को यह विश्वास दिलाता है कि उनकी पीड़ा भगवान की इच्छा है और उन्हें अपनी परिस्थितियों को स्वीकार करना चाहिए
मार्क्सवादियों का कहना है कि हमें सामाजिक न्याय और समानता के लिए लड़ना चाहिए, और धर्म को इस लड़ाई में बाधा नहीं बनने देना चाहिए।
मानवतावाद एक नैतिक और दार्शनिक दृष्टिकोण है जो मानव तर्क, नैतिकता और न्याय पर जोर देता है। मानवतावादी धर्म को नैतिकता और मानव कल्याण के लिए एक अनावश्यक और हानिकारक बाधा के रूप में देखते हैं। उनका मानना है कि हमें अपने कार्यों के लिए खुद जिम्मेदार होना चाहिए और हमें किसी भी अलौकिक शक्ति पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।
धर्म का दुरुपयोग किया जा सकता है। धर्म का उपयोग सामाजिक असमानता और अन्याय को कायम रखने के लिए किया जा सकता है। धर्म का उपयोग हिंसा और घृणा को भड़काने के लिए किया जा सकता है।
हमें सामाजिक न्याय और समानता के लिए मिलकर काम करना चाहिए, और धर्म को इस लड़ाई में बाधा नहीं बनने देना चाहिए। हमें एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहिए जहां सभी मनुष्यों के साथ सम्मान और गरिमा के साथ व्यवहार किया जाए।
हमें यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि धर्म का उपयोग इन समूहों को दबाने या कलंकित करने के लिए नहीं किया जाता है, बल्कि उन्हें समर्थन, आशा और समुदाय की भावना प्रदान करने के लिए किया जाता है।
मानवता धर्म से ऊपर*
मार्क्स ने मानवता को धर्म से ऊपर रखने के लिए कहा था। उनका मानना था कि हमें दूसरों के प्रति दयालु, करुणामय और सहानुभूतिपूर्ण होने के लिए धार्मिक होने की आवश्यकता नहीं है। उनका तर्क था कि मानवता सभी मनुष्यों में मौजूद एक अंतर्निहित गुण है और इसे धार्मिक सिद्धांतों पर आधारित होने की आवश्यकता नहीं है। मार्क्स के अनुयायियों का तर्क है कि मानवता को धर्म से ऊपर रखने से हमें गरीबों और मानसिक रूप से विकलांग लोगों सहित समाज के सभी सदस्यों के साथ सम्मान और गरिमा के साथ व्यवहार करने में मदद मिलेगी। उनका यह भी तर्क है कि मानवता को धर्म से ऊपर रखने से हमें सामाजिक न्याय के लिए लड़ने और सभी के लिए समान अवसर पैदा करने में मदद मिलेगी। हालांकि, कई धार्मिक नेता और अनुयायी मार्क्स के सिद्धांत से असहमत हैं। उनका तर्क है कि धर्म हमें दूसरों के प्रति दयालु, करुणामय और सहानुभूतिपूर्ण होने के लिए प्रेरित करता है।
क्या धर्म वास्तव में गरीबों और मानसिक रूप से विकलांग लोगों का प्रतिनिधित्व करता है।
क्या ये वही धर्म नहीं हैं जो अक्सर इन लोगों को हाशिए पर धकेलते हैं और उनका शोषण करते हैं? क्या ये वही धार्मिक संस्थान नहीं हैं जो धन और शक्ति जमा करते हैं जबकि लाखों लोग भूख और गरीबी में जी रहे हैं?”
यह समझना महत्वपूर्ण है कि मार्क्सवाद धर्म को कैसे देखता है। मार्क्स के अनुसार, धर्म “जनता के लिए अफीम” है। उनका मानना था कि धर्म लोगों को वास्तविक दुनिया की समस्याओं से दूर करता है और उन्हें काल्पनिक स्वर्ग का वादा करके शोषण को स्वीकार करने के लिए मजबूर करता है। मार्क्सवाद मानवतावाद पर जोर देता है, जिसका अर्थ है कि यह मानव कल्याण और मानव तर्क को सर्वोच्च मूल्य मानता है। मार्क्सवादियों का मानना है कि धर्म को समाप्त करके और आर्थिक और सामाजिक समानता स्थापित करके ही सच्चे मानव मुक्ति को प्राप्त किया जा सकता है।
धर्म अंधविश्वास और तर्कहीनता को बढ़ावा देता है। दूसरों का तर्क है कि धर्म हिंसा और भेदभाव का कारण बनता है। कई लोगों का मानना है कि धार्मिक संस्थान धन और शक्ति का दुरुपयोग करते हैं।
कार्ल मार्क्स के मानवतावादी संदेश में आज भी प्रासंगिकता है। उन्होंने हमें धर्म पर अंधाधुंध विश्वास करने के बजाय अपने तर्क और विवेक का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने हमें सामाजिक अन्याय के खिलाफ लड़ने और सभी मनुष्यों के लिए एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए प्रेरित किया। मार्क्स के विचार हमें यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि धर्म का हमारे जीवन और समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है। हमें हमेशा मानवता को धर्म से ऊपर रखना चाहिए और सभी के अधिकारों और गरिमा की रक्षा करनी चाहिए। यह सुनिश्चित करने के लिए हमें गरीबों और विकलांगों सहित समाज के सबसे कमजोर सदस्यों की देखभाल करनी चाहिए।
महान दार्शनिक और समाज सुधारक कार्ल मार्क्स ने एक बार फिर प्रासंगिकता हासिल कर ली है, खासकर उनके मानवतावादी विचारों के संदर्भ में। मार्क्स का स्पष्ट मानना था कि मानवता को किसी भी धर्म से ऊपर रखा जाना चाहिए, क्योंकि धर्म अक्सर विभाजित करता है, भ्रमित करता है और मानवता को समग्र रूप से आगे बढ़ने से रोकता है।
उन्होंने कहा कि धर्म नस्लवाद, लिंगवाद और वर्गवाद जैसे सामाजिक अन्याय को भी सही ठहरा सकता है।
क्या धर्म वास्तव में समाज के सबसे कमजोर सदस्यों – गरीबों और मानसिक रूप से विकलांग लोगों – के लिए कुछ करता है। उन्होंने देखा कि अक्सर धर्म का उपयोग इन लोगों को दबाने और उनका शोषण करने के लिए किया जाता है।
मार्क्स का तर्क था कि धर्म गरीबों को यह मानने के लिए प्रेरित करता है कि उनकी गरीबी भगवान की इच्छा है और उन्हें इसे स्वीकार करना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि धर्म मानसिक रूप से विकलांग लोगों को समाज से अलग-थलग कर सकता है और उन्हें यह महसूस करा सकता है कि वे श्रापित हैं.
मार्क्स ने यह भी तर्क दिया कि मानवता तर्क और विज्ञान पर आधारित है, जबकि धर्म अक्सर अंधविश्वास और अज्ञानता पर आधारित होता है। उन्होंने कहा कि मानवता हमें दुनिया को समझने और इसे बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करती है।
*निष्कर्ष*
कार्ल मार्क्स के विचार आज भी प्रासंगिक हैं, खासकर जब हम धर्म और मानवता के बीच संबंधों पर विचार करते हैं। मार्क्स का मानवतावादी आह्वान हमें यह याद दिलाता है कि सभी मनुष्यों के प्रति सहानुभूति, करुणा और सम्मान रखना कितना महत्वपूर्ण है।
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मार्क्स के अनुसार, सामाजिक परिवर्तन का तात्पर्य उन संरचनात्मक बदलावों से है जो समाज के आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पहलुओं में होते हैं। यह परिवर्तन आवश्यक है क्योंकि यह समाज में असमानताओं को समाप्त करने, न्याय और समानता की स्थापना करने, और मानवता के विकास के लिए एक स्वस्थ वातावरण बनाने में सहायक होता है। सामाजिक परिवर्तन के बिना, समाज में विद्यमान कुप्रथाएँ और अंधविश्वास निरंतर बढ़ते रहेंगे, जिससे समाज का समग्र विकास बाधित होगा। उदाहरण के लिए, जब तक समाज में आर्थिक विषमताएँ बनी रहेंगी, तब तक सामाजिक न्याय की स्थापना संभव नहीं हो सकेगी। इस प्रकार, मार्क्स का यह विचार कि सामाजिक परिवर्तन अनिवार्य है, न केवल एक सिद्धांत है, बल्कि यह एक क्रांतिकारी दृष्टिकोण भी है जो समाज के हर स्तर पर प्रभाव डालता है।
मार्क्स ने अपने घोषणा पत्र में पूंजीवाद के अंत का संकल्प लिया है, जिसमें उन्होंने उच्च शिक्षा को निःशुल्क करने और उपभोग की वस्तुओं को सभी के लिए उपलब्ध कराने का प्रस्ताव रखा। उनका मानना था कि शिक्षा और संसाधनों का समान वितरण ही समाज में वास्तविक परिवर्तन ला सकता है। इस दृष्टिकोण से, मार्क्स ने मानवता को धर्म से ऊपर रखने की आवश्यकता पर जोर दिया, यह मानते हुए कि धर्म अक्सर सामाजिक असमानताओं को बनाए रखने का एक साधन बन जाता है। उन्होंने तर्क किया कि जब लोग अपने वास्तविक आर्थिक और सामाजिक हालात को समझेंगे, तब वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित होंगे। इस प्रकार, मार्क्स का विचार केवल आर्थिक बदलावों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक सामाजिक क्रांति की आवश्यकता को भी दर्शाता है, जो अंततः मानवता के लिए एक बेहतर भविष्य की दिशा में अग्रसर हो सके।
इसलिए, मार्क्स का सिद्धांत न केवल एक आर्थिक प्रणाली के खिलाफ विद्रोह का आह्वान है, बल्कि यह एक समग्र सामाजिक पुनर्निर्माण की आवश्यकता को भी उजागर करता है। उनके विचारों के अनुसार, जब समाज में सभी वर्गों के लिए समान अवसर और संसाधन उपलब्ध होंगे, तब ही वास्तविक सामाजिक परिवर्तन संभव होगा। इस प्रकार, मार्क्स का दृष्टिकोण आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि यह हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि हम एक अधिक समान और न्यायपूर्ण समाज की दिशा में कैसे आगे बढ़ सकते हैं।
कार्ल मार्क्स एक दूरदर्शी विचारक थे जिन्होंने दुनिया को देखने के तरीके को बदल दिया। उनके विचारों ने दुनिया भर में सामाजिक आंदोलनों और क्रांतियों को प्रेरित किया है, और आज भी उनके विचारों की प्रासंगिकता बनी हुई है। मार्क्स के विचार हमें पूंजीवाद की आलोचना करने, सामाजिक न्याय और समानता के लिए संघर्ष करने और एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए प्रेरित करते हैं।
मार्क्सवाद आज भी दुनिया भर में प्रासंगिक है। यह अभी भी सामाजिक आंदोलनों और क्रांतियों को प्रेरित करता है, और यह पूंजीवाद की आलोचना और सामाजिक न्याय और समानता के लिए संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
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इस प्रकार, भारतीय न्याय संहिता समाज में जागरूकता और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह न केवल अपराधियों को दंडित करती है, बल्कि समाज में सकारात्मक बदलाव लाने का भी प्रयास करती है।
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@भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने पर होगा संविधान को निम्न हानि।
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स्वतंत्रा का महत्व, धर्मनिरपेक्षता, भारतीय संविधान में राज्यों की धर्म निरपेक्षता के सिधान्त की उत्तपत्ति वास्तव में, सच्चे मायने में सामाजिक, आथ्रिक, राजनितिक क्षेत्र में बदलाव का सहारा।
https://pargaiwebeng.in/…/importance-of-independence…/
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@भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने पर होगा संविधान को निम्न हानि।
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प्राचीन भारत: में मंदिरों की कोई अवधारणा नहीं थी
https://thecommunistsocietyofindia.pargaiwebeng.in/ancie…/
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मार्क्स: धर्म से ऊपर मानवता, कुप्रथाओं के अंधकार से मुक्ति
https://thecommunistsocietyofindia.pargaiwebeng.in/…
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देखिये धार्मिक कुरीतिया हमारे समाज को किस तरह कुप्रभावित करती है
https://pargaiwebeng.in/see-how-religious-evils…/
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महिलाओं और बालिकाओं के नाक कान छेदना: हानिकारक प्रथा, संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन
https://pargaiwebeng.in/piercing-of-ears-and-nose-of…/
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स्कूल और कॉलेजों में कुप्रथाओं, अन्धविश्वासो को बढावा देने वाले अध्यापको/अध्यापिकाओं पर कार्यवाही आवश्यक है
https://pargaiwebeng.in/action-is-necessary-against…/
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#हमारा संविधान धर्म को नष्ट करने में कैसे सहायक है?
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१)धार्मिक संगठनो के द्वारा बलतकार जौसे घटनाओं के विश्लेषण के प्रसारण (broadcast) पर रोक लगाकर
२)धार्मिक संगठनो के द्वारा हत्या जौसे घटनाओं के विश्लेषण के प्रसारण (broadcast) पर रोक लगाकर
३)धार्मिक संगठनो के द्वारा अपहरण जौसी घटनाओं के विश्लेषण के प्रसारण (broadcast) पर रोक लगाकर
४)धार्मिक संगठनो के द्वारा छुआ छुत को बढावा देने वाले जौसे घटनाओं विश्लेषण के प्रसारण (broadcast) पर रोक लगाकर
5)धार्मिक संगठनो के द्वारा अस्पृश्यता और सामाजिक निर्योग्यता: (Disqualification) ( सिर में तिलक, सिंदूर और बिंदी जैसी परंपराएँ) जौसे कुप्रथाओ जौसे घटनाओं के विश्लेषण के प्रसारण (broadcast) पर रोक लगाकर
6)धार्मिक संगठनो के द्वारा अतिशयोक्ति, “भ्रामक” ( भ्रमित करने वाला,) धोखेबाज” भ्रष्टाचार (Corruption) जौसे घटनाओं के विश्लेषण के प्रसारण (broadcast) पर रोक लगाकर
7)धार्मिक संगठनो के द्वारा लूट-पाट जैसे घटनाओं विश्लेषण के प्रसारण (broadcast) पर रोक लगाकर
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हमारा संविधान धार्मिक संगठनों की गतिविधियों पर नियंत्रण स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह बलात्कार जैसी गंभीर घटनाओं के प्रसारण पर रोक लगाकर समाज में जागरूकता और सुरक्षा को बढ़ावा देता है। इस प्रकार, संविधान यह सुनिश्चित करता है कि ऐसे संवेदनशील मुद्दों का सही तरीके से विश्लेषण किया जाए, जिससे समाज में सकारात्मक बदलाव आ सके।
इसके अलावा, हत्या और अपहरण जैसी घटनाओं के प्रसारण पर रोक लगाना भी संविधान की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। यह न केवल अपराधों के प्रति समाज की संवेदनशीलता को बढ़ाता है, बल्कि धार्मिक संगठनों द्वारा फैलाए जाने वाले भय और आतंक को भी कम करता है। इस तरह, संविधान समाज में शांति और सद्भाव को बनाए रखने में सहायक होता है।
संविधान छुआछूत और अस्पृश्यता जैसी कुप्रथाओं के खिलाफ भी सख्त कदम उठाता है। धार्मिक संगठनों द्वारा इन मुद्दों के प्रसारण पर रोक लगाकर, यह सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देता है। इसके साथ ही, यह भ्रष्टाचार और भ्रामक सूचनाओं के प्रसारण को नियंत्रित करके समाज में नैतिकता और पारदर्शिता को सुनिश्चित करता है।
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@Sociology analyses the social problems and provided solution whereas history’ simply provides description of fact!!
The contributions of “Durkhim” spencer and Max, karl marx weber is significant to develop sociology as a separate displine.
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★राज्य द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थाओं और विभागों में किसी भी धर्म का प्रचार-प्रसार नहीं किया जाएगा, न ही धार्मिक शिक्षा प्रदान की जाएगी। इसके अलावा, किसी भी धर्म के आचरण या अनुसरण की अनुमति नहीं होगी। ऐसा करना कानून के अनुसार अपराध माना जाएगा और इसके लिए दंड का प्रावधान है।
★यह स्पष्ट है कि संविधान मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। इसके लिए एक विस्तृत सूची तैयार की जाएगी और ऐसे उपाय खोजे जाएंगे, जिनसे इन अधिकारों को लागू किया जा सके। यदि इन अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो उनकी रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय सरकार को निर्देश और आदेश दे सकते हैं।
★धर्म को मौलिक अधिकारों की श्रेणी में नहीं रखा गया है। यह सुनिश्चित करता है कि राज्य की शैक्षणिक संस्थाएं और विभाग धर्म से मुक्त रहें और सभी नागरिकों को समान अवसर प्रदान करें।
संविधानिक अधिकारों और धर्म पर सरकारी नीति: शैक्षणिक संस्थाओं में धर्मिक शिक्षा पर सख्ती और मौलिक अधिकारों की सुरक्षा
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☆भारत में हिन्दू धर्म को मनुवादियों द्वारा पुरोहितवाद के द्वारा बनाया गया है। और विश्व में राजनीत को मार्क्सवाद और व्लादिमीर लेनिनवाद (Marxism and Vladimir Leninism) के द्वारा।
★”मूर्ख व्यक्ति की समृद्धता से समझदार व्यक्ति का दुर्भाग्य कहीं अधिक अच्छा होता है।” – एपिक्यूरस
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#ब्राहमण धर्म के लोगों ने प्रतिक्रांति की गोदत्त की हत्या की बौद्धों के विहारों को तोड़ा उनके स्थानों में मन्दिर का निर्माण किया। बौद्धों का नर संघार किया। ब्राहमण धर्म के लोगों ने समाज का वर्गीकरण कर सामाजिक वैमनस्य को और अधिक प्रखर किया। बौद्ध भी भिक्षु ,सन्त समाज के थे।
और समाज के कुछ लोगों को शु ट शुद्र और अति शुद्ध नाम दिया और समाज के लोगों को शुद्र और अति शुद्ध नाम दिया और उनको हिंदुओं के मंदिरो में प्रवेश वर्जित कर दिया। साथ ही साथ महिलाओ का भी वर्गीकरण शुरू कर दिया उन्हें असामाजिक तत्व मानकर समाज से बाहर निकल दिया समाज में महिलाओ के साथ भेदभाव शुरू कर दिया साथ ही साथ अनेकों कुप्रथाओ व अंधविस्वासो के अंधकार में धकेल दिया। और महिलाओं को काल्पनिक देवी-देवतावो के प्रति आश्रित कर दिया। पूर्ब बौद्ध काल में मंदिरों का कोई concept नही है। यह बात हमे इतिहास बताता है। यही एक कारण है कि महलाए और शुद्र आज भी समाज में बहिष्कृत (Excluded) है.
#हिंदुओ के मंदिरों में दलितों (शुद्रो) का प्रवेश वर्जित क्यों?
सबसे पुराने मंदिरों में से एक बिहार के कैमूर जिले के कौरा क्षेत्र का मुंडेश्वरी मंदिर है. कहा जाता है कि इसका निर्माण 3 या 4 शताब्दियों के दौरान हुआ था. हिंदू मंदिरों का निर्माण उत्तर भारत में 5वीं शताब्दी से और दक्षिण भारत में 6ठी शताब्दी से शुरू हुआ। 8वीं से 10वीं शताब्दी तक, हिंदू मंदिर निर्माण जोरों पर था।
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यह पाठ में दी गई जानकारी का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करता है और मार्क्स के विचारों की प्रासंगिकता पर प्रकाश डालता है।
अब आप भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (CPIML) से जुड़ना चाहेंगे.
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महिलाओं और बालिकाओं के नाक कान छेदना: हानिकारक प्रथा, संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन+++
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